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पृथि॑वि देवयज॒न्योष॑ध्यास्ते॒ मूलं॒ मा हि॑ꣳसिषं व्र॒जं ग॑च्छ गो॒ष्ठानं वर्ष॑तु ते॒ द्यौर्ब॑धा॒न दे॑व सवितः पर॒मस्यां॑ पृथि॒व्या श॒तेन॒ पाशै॒र्यो᳕ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मस्तमतो॒ मा मौ॑क् ॥२५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पृथि॑वि। दे॒व॒य॒ज॒नीति॑ देवऽयजनि। ओष॑ध्याः। ते॒। मूल॑म्। मा। हि॒ꣳसि॒ष॒म्। व्र॒जम्। ग॒च्छ॒। गो॒ष्ठान॑म्। गो॒स्थान॒मिति॑ गो॒ऽस्थान॑म्। वर्ष॑तु। ते॒। द्यौः। ब॒धा॒न। दे॒व॒। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प॒र॒म्। अस्या॑म्। पृ॒थि॒व्याम्। श॒तेन॑। पाशैः॑। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। अतः॑। मा। मौ॒क् ॥२५॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:25


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त यज्ञ कहाँ जाके क्या करनेवाला होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) सूर्य्यादि जगत् के प्रकाश करने तथा (सवितः) राज्य और ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर ! (ते) आपकी कृपा से मैं (देवयजनि) विद्वानों के यज्ञ करने की जगह (ते) यह जो (पृथिवि) भूमि है, उसके [और (ओषध्याः) जो यवादि ओषधि हैं] उनके (मूलम्) वृद्धि करनेवाले मूल को (मा हिꣳसिषम्) नाश न करूँ और मैं (पृथिव्याम्) अनेक प्रकार सुखदायक भूमि में (यः) जिस यज्ञ का अनुष्ठान करता हूँ, वह (व्रजम्) जलवृष्टिकारक मेघ को (गच्छ) प्राप्त हो, वहाँ जाकर (गोष्ठानम्) सूर्य्य की किरणों के गुणों से (वर्षतु) वर्षाता है और (द्यौः) सूर्य्य के प्रकाश को (वर्षतु) वर्षाता है। हे वीर पुरुषो ! आप (अस्याम्) इस उत्कृष्ट पृथिवी में (यः) जो कोई अधर्मात्मा डाकू (अस्मान्) सब के उपकार करनेवाले धर्मात्मा सज्जन हम लोगों से (द्वेष्टि) विरोध करता है (च) और (यम्) जिस दुष्ट शत्रु से (वयम्) धार्मिक शूर हम लोग (द्विष्मः) विरोध करें, (तम्) उस दुष्ट (परम्) शत्रु को (शतेन) अनेक (पाशैः) बन्धनों से (बधान) बाँधो और उसको (अतः) इस बन्धन से कभी (मा मौक्) मत छोड़ो ॥२५॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान् मनुष्यों को पृथिवी का राज्य तथा उसी पृथिवी में तीन प्रकार के यज्ञ और ओषधियाँ इनका नाश कभी न करना चाहिये। जो यज्ञ अग्नि में हवन किये हुए पदार्थों का धूम मेघमण्डल को जाकर शुद्धि के द्वारा अत्यन्त सुख उत्पन्न करनेवाला होता है, इससे यह यज्ञ किसी पुरुष को कभी छोड़ने योग्य नहीं है तथा जो दुष्ट मनुष्य हैं, उनको इस पृथिवी पर अनेक बन्धनों से बाँधे और उनको कभी न छोड़ें, जिससे कि वे दुष्ट कर्मों से निवृत्त हों और सब मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर ईर्ष्या-द्वेष से अलग होकर एक-दूसरे की सब प्रकार सुख की उन्नति के लिये सदा यत्न करें ॥२५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स यज्ञः क्व गत्वा किंकारी भवतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(पृथिवि) विस्तृताया भूमेः (देवयजनि) देवा यजन्ति यस्यां तस्याः (ओषध्याः) यवादेः (ते) अस्याः। अत्र सर्वत्र विभक्तेर्विपरिणामः क्रियते (मूलम्) वृद्धिहेतुकम् (मा) निषेधार्थे (हिंसिषम्) उच्छिन्द्याम्। अत्र लिङर्थे लुङ् (व्रजं) व्रजन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्त्यापो यस्मात् यस्मिन् वा तं व्रजं मेघम्। व्रज इति मेघनामसु पठितम्। (निघं꠶१।१०)। (गच्छ) गच्छतु। अत्र व्यत्ययः (गोष्ठानम्) गवां सूर्य्यरश्मीनां पशूनां वा स्थानम्। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं꠶१।५)। (वर्षतु) स्पष्टार्थः (ते) तस्य। अत्र संबन्धार्थे षष्ठी। (द्यौः) सूर्य्यप्रकाशः (बधान) बन्धय (देव) सूर्य्यादिप्रकाशकेश्वर (सवितः) राज्यैश्वर्य्यप्रद (परम्) शत्रुम् (अस्याम्) प्रत्यक्षायाम् (पृथिव्याम्) बहुसुखप्रदायाम् (शतेन) बहुभिः (पाशैः) बन्धनसाधनैः। पश बन्धन इत्यस्य रूपम् (यः) अधर्मात्मा दस्युः शत्रुश्च (अस्मान्) सर्वोपकारकान् धार्मिकान् (द्वेष्टि) विरुध्यति (यम्) दुष्टं शत्रुम् (च) समुच्चये (वयम्) धार्मिकाः शूराः (द्विष्मः) विरुध्यामः (तम्) पूर्वोक्तम् (अतः) बन्धात् कदाचित् (मा) निषेधार्थे (मौक्) मोचय। मुच्लृ मोक्षणे इत्यस्माल्लोडर्थे लुङ्यडभावे च्लेः सिच् [अष्टा꠶३.१.४४] सिजादेशे, बहुलं छन्दसि [अष्टा꠶७.३.९७] इतीडभावः। वदव्रज꠶ [अष्टा꠶७.२.३] इति वृद्धिः। संयोगान्तस्य लोपः [अष्टा꠶८.२.२३] इति सिज्लुक् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।२।४।१६) व्याख्यातः ॥२५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव सवितः परमात्मन् ! ते तव कृपयाऽहं देवयजानि देवयज्ञाधिकरणायास्तेऽस्याः पृथिवि भूमेर्मूलं वृद्धिहेतुं मा हिंसिषं मया पृथिव्यां योऽयं यज्ञोऽनुष्ठीयते स व्रजं मेघं गच्छ गच्छतु गत्वा गोष्ठानं वर्षतु द्यौर्वर्षतु। हे वीर ! त्वमस्यां योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तं परं शत्रुं शतेन पाशैर्बधान बन्धय। तमसो बन्धनात् कदाचिन्मा मौक् मा मोचय ॥२५॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञापयति विद्वद्भिर्मनुष्यैः पृथिव्यां राज्यस्य त्रिविधस्य यज्ञस्यौषधीनां च हिंसनं कदाचिन्नैव कार्य्यम्। योऽग्नौ हुतद्रव्यस्य सुगन्ध्यादिगुणविशिष्टो धूमो मेघमण्डलं गत्वा सूर्य्यवायुभ्यां छिन्नस्याकर्षितस्य धारितस्य जलसमूहस्य शुद्धिकरो भूत्वाऽस्यां पृथिव्यां वायुजलौषधिशुद्धिद्वारा महत्सुखं संपादयति। तस्मात् स यज्ञः केनापि कदाचिन्नैव त्याज्यः। ये दुष्टा मनुष्यास्तानस्यां पृथिव्यामनेकैः पाशैर्बध्वा दुष्टकर्मभ्यो निवर्त्य कदाचित्ते न मोचनीयाः। अन्यच्च परस्परं द्वेषं विहायान्योऽन्यस्य सुखोन्नतये सदैव प्रयतितव्यमिति ॥२५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराची ही आज्ञा आहे की, विद्वान माणसांनी पृथ्वीवरील राज्य, तीन प्रकारचे यज्ञ व औषधीयुक्त वृक्षांचा नाश करता कामा नये. यज्ञात अग्नीमुळे उत्पन्न झालेला धूर मेघमंडळात जातो व शुद्धी करून सुख उत्पन्न करतो त्यासाठी माणसांनी यज्ञाचा त्याग कधीही करू नये व विरोध करणाऱ्या दुष्ट माणसांवर असे निर्बंध घालावेत की ज्यामुळे ते दुष्ट कर्मापासून परावृत्त होतील. सर्व माणसांचे हे कर्तव्य आहे की, त्यांनी परस्परांशी ईर्षा व द्वेषाने न वागता एकमेकांच्या उन्नतीसाठी प्रयत्न करावेत.